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कुछ ऐसा रिश्ता है हमारा

कुछ ऐसा रिश्ता है हमारा मेरी आंखों से कभी आंसू काम नहीं हुए और उसकी किस्मत से दर्द कैसे लिखती में अपनी कहानी जब भी सोचती तो पन्ने दुख के ज्यादा था और मोहब्बत के कम कैसे पार लगाती इस समंदर के किनारों को  सफर इम्ताहानों के ज्यादा थे और कामयाबी के कम कैसे रोक पाती अपनी तन्हाई को चिंगारी अंधेरे की ज्यादा थी और रोशनी की कम कैसे छुपा पाती किस्मत की लकीरों को जिसमे बिछड़ना ज्यादा था और मुलाकाते कम कैसे निकलती जिम्मेदारियों के बोझ से जिसमे सिर्फ दर दर ठोकर खाना लिखा था और ठहरना कम कैसे में बीता लेती हर एक दिन को सब सहते जिसमे खोना ज्यादा लिखा था और पाना कम कैसे रोक पाती में अपने समय को रोकते जिसमे सिर्फ बितना लिखा था और पाना कम कैसे सह पाती नफरत इन रिश्तों की जिसमे कागज के पन्नो को सिर्फ बिखरना था और जुड़ना कम हिमानी सराफ

मजदूर दिवस

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"मजदूर दिवस" सीचते अपने आंखो के आंसू को सोखते धूप में पसीने को करते रोजी रोटी का इंतजार आज मजदूर बन खड़ा है । थकाते अपने हाथो को तोड़ते अपने सपनो को जोतने फसल की भूमि को आज मजदूर बन खड़ा है । लिए कंधो पर बोझे को गुलामी के सहारे को मजबूरी का नाम दिए आज मजदूर बन खड़ा है । मिट्टी को सोना बनाने को चला धरती मां को छुने को उठा फावड़ा हल जोतने आज मजदूर बन खड़ा है ।  दिलाने देश की पहचान को नम्रता से स्वाभिमान की रक्षा को अपने हौसले का बखान करने आज मजदूर बन खड़ा है ।। -हिमानी सराफ